बूढ़ी यादें

एक शाख़ पे आके बैठ गया,
कोई, दूर का मुसाफ़िर लगता है;
जाने किस शहर से आया है,
जाने किस शहर को जाएगा।
 

मुझको तो वो कोई,
जाना पहचाना सा लगता है,
जैसा उससे रिश्ता कोई,
अनजाना सा लगता है।
 

पूछूँ तो कहता है,
साथ कभी हम खेले थे;
मीठी-मीठी धूप के,
हर ओर लगे जहां मेले थे।
 

ओस की बूँदें पत्तों पर,
हर ओर जहां पे ठहरी थी;
हर मोती में एक सूरज था,
नज़्म जहां पे फैली थी।
 

वो मोती जो साथ चुने थे,
उसकी चमक चुरा के लाई हूँ।
 

मै, तेरे बचपन की,
बूढ़ी यादें लेकर आई हूँ;
हर यादों की कुछ,
बूढ़ी बातें लेकर आई हूँ।
 

तेरे घर की मिट्टी से लगा,
वो आम का सूखा पेड़,
वो दरगाह से उठती धूप की ख़ुशबू,
वो खिलखिलाती हँसी का मेल।
 

वो घर का मुस्कराता आँगन,
वो महफ़िलों से भरी शाम;
वो माँ की प्यारी डाँट,
हर बदमाशियों के नाम।
 

वो दरगाह से उठती धूप की ख़ुशबू,
तेरी बातें करती है;
वो बूढ़ी बग़िया अब भी,
वीराने काँधे तकती है।
 

उस रोज़, जिस माँ ने प्यार से,
आँचल में तुझे छुपा लिया;
उस आँचल से तेरे लम्स की,
नरमी चुराकर लाई हूँ;
 

मै, तेरे बचपन की,
बूढ़ी यादें लेकर आई हूँ;
हर यादों की कुछ,
बूढ़ी बातें लेकर आई हूँ।
 

वो तेरी यादों के बादल,
अब भी, रोज़ वहीं पर आते है;
गुर्राते है, मंडराते है,
हर छत से आस लगाते है।
 

उन गलियारों और सूने आँगन से जब,
पूछ-पूछ थक जाते है;
फिर ख़ामोशी और तन्हाई से,
कुछ भीगे नीर छलकाते है।
 

उस ख़ामोशी और तन्हाई के,
कुछ आंसू चुराकर लाई हूँ;
 

मै, तेरे बचपन की,
बूढ़ी यादें लेकर आई हूँ;
हर यादों की कुछ,
बूढ़ी बातें लेकर आई हूँ।
 

जिस दादी की बूढ़ी आँखों से,
तूने नींद चुराई थी;
दूर देश से परी बुलाकर,
ख़्वाबों की सैर कराई थी;
चाँद बना था तेरा मामा,
तारे तेरी रज़ाई थी;
 

वो आँखें थक कर सो गयी,
वो चंदा मामा नहीं रहा;
उन पारियों का, उन गलियों में;
अब आना जाना नहीं रहा;
 

उस घर में बसी ख़ामोशी की,
आवाज़ चुरा कर लाई हूँ;
 

मै, तेरे बचपन की,
बूढ़ी यादें लेकर आई हूँ;
हर यादों की कुछ,
बूढ़ी बातें लेकर आई हूँ।

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